दिनांक 5.7.2025 (दयाराम कुशवाहा नर्मदापुरम ) मध्यप्रदेश के नर्मदापुरम जिले में वन विभाग में हाल ही में घटित एक घटना ने प्रशासनिक प्रणाली, उसकी कार्यप्रणाली और भ्रष्टाचार के विरुद्ध कथित "जीरो टॉलरेंस" नीति पर गंभीर प्रश्न खड़े कर दिए हैं। मामला डिप्टी रेंजर हरगोविंद मिश्रा का है, जो अपने सेवानिवृत्ति (रिटायरमेंट) के दिन विदाई समारोह मना ही रहे थे, कि उसी दिन शाम को उनकी सेवा समाप्ति (बर्खास्तगी) का आदेश भी जारी हो गया।
मामला क्या है?
हरगोविंद मिश्रा पर इकोसिस्टम इम्प्रूवमेंट प्रोजेक्ट के तहत 150 व्यक्तियों के भ्रमण कार्यक्रम में लगभग 18 लाख रुपये की वित्तीय अनियमितताओं का आरोप था। विभागीय जांच में अनियमितताओं की पुष्टि हुई, जिसके बाद मिश्रा को अपना पक्ष रखने का अवसर दिया गया। बताया जाता है कि मिश्रा ने 24 जून को अपनी सफाई दाखिल की, लेकिन 30 जून को उन्हें सेवा से पृथक करने का आदेश जारी कर दिया गया।
यह घटनाक्रम सामान्य अनुशासनात्मक कार्यवाहियों की तुलना में असामान्य रूप से नाटकीय रहा। प्रायः ऐसी कार्रवाइयाँ सेवानिवृत्ति तिथि से पूर्व स्पष्ट कर दी जाती हैं, ताकि भविष्य में पेंशन या अन्य लाभों को लेकर विवाद न हो। यहाँ ऐसा प्रतीत हुआ मानो विदाई समारोह औपचारिकता थी, जबकि आदेश पहले से ही लगभग तय था।
प्रशासनिक संदेश या प्रक्रिया में जल्दबाज़ी?
राज्य सरकार का दावा है कि वह भ्रष्टाचार और वित्तीय अनियमितताओं पर सख्ती से कार्रवाई कर रही है। इस दृष्टि से यह कदम एक सख्त संदेश भी माना जा सकता है कि सेवा के अंतिम दिन तक भी कोई राहत नहीं मिलेगी।
हालांकि, इसमें यह प्रश्न भी उठता है कि जब जांच में पुष्टि हो चुकी थी और सफाई देने के लिए तारीख तय कर दी गई थी, तब अंतिम निर्णय को विदाई समारोह के दिन ही क्यों लिया गया? क्या इस प्रक्रिया में कोई मानवीय दृष्टिकोण भी होना चाहिए था, या फिर कड़ी प्रशासनिक कार्यवाही को ही सर्वोच्च मानते हुए इसे लागू किया गया?
कर्मचारी हित बनाम जनहित
यह मामला एक तरफ जनधन की रक्षा और पारदर्शिता की दृष्टि से अनुकरणीय उदाहरण भी बन सकता है। किन्तु दूसरी ओर, यदि बर्खास्तगी की प्रक्रिया में कहीं जल्दबाजी या औपचारिकताएं अधूरी रही हों, तो इससे कर्मचारी हितों पर प्रश्नचिन्ह लगना भी स्वाभाविक है।
साथ ही यह प्रकरण उस बड़े प्रश्न को भी उजागर करता है कि सरकारी योजनाओं में भ्रमण, कार्यशाला, प्रशिक्षण आदि कार्यक्रमों में व्यय की निगरानी कितनी मजबूत है? आखिर लाखों रुपये के खर्च में यदि डिप्टी रेंजर स्तर तक की गड़बड़ी उजागर हो सकती है, तो परियोजना के अन्य स्तरों पर क्या हालात होंगे?